एक छोटे से गांव में रहने वाला रमेश एक साधारण लड़का था। उसके पास न तो धन था, न ही कोई विशेष प्रतिभा। गांव वाले उसे सपनों का दीवाना कहकर हंसते, क्योंकि वह हमेशा बड़े-बड़े सपने देखता। रमेश का सपना था कि वह एक दिन अपने गांव के लिए स्कूल खोले, जहां गरीब बच्चे मुफ्त में पढ़ सकें। लेकिन हालात ऐसे थे कि वह खुद मुश्किल से स्कूल की फीस जुटा पाता था।
एक दिन, रमेश ने गांव के मेला में एक मूर्तिकार को देखा। वह मूतिर्कार पत्थरों को तराशकर सुंदर मूर्तियां बनाता था। रमेश ने उससे पूछा, इन मूर्तियों में इतनी जान कैसे आती है? मूर्तिकार ने मुस्कुराते हुए कहा, ये पत्थर साधारण हैं। मैं इन्हें छेनी और हथौड़े से तराशता हूं। मेहनत और धैर्य से ये खूबसूरत बन जाते हैं। मूर्तिकार की बात रमेश के दिल में उतर गई।
उसने सोचा, अगर पत्थर मेहनत से मूर्ति बन सकता है, तो मैं क्यों नहीं? उस दिन से रमेश ने अपने सपने को हकीकत में बदलने की ठान ली। उसने दिन में मजदूरी शुरू की और रात को मोमबत्ती की रोशनी में पढ़ाई की। कई बार थकान और निराशा ने उसे घेरा। गांव वाले उसका मजाक उड़ाते, तू स्कूल खोलेगा? यह सपना तुझसे बड़ा है! लेकिन रमेश ने हार नहीं मानी। समय बीता।
रमेश ने छोटी-छोटी बचत से पैसे जोड़े। उसने गांव के कुछ बुजुर्गों और शिक्षकों से मदद मांगी। धीरे-धीरे, उसकी मेहनत रंग लाई। कई सालों के संघर्ष के बाद, उसने गांव में एक छोटा सा स्कूल खोला। पहले दिन, जब बच्चे स्कूल आए और उनकी आंखों में खुशी देखी, रमेश की आंखें भर आईं। उसने महसूस किया कि वह कोई विशेष इंसान नहीं था, बस उसने अपने प्रयासों से अपने सपने को तराशा था। रमेश की कहानी गांव-गांव तक फैली।
लोग समझ गए कि महानता जन्म से नहीं, मेहनत से मिलती है। उसका स्कूल आज भी बच्चों को शिक्षा का प्रकाश दे रहा है। रमेश ने साबित कर दिया कि ईश्वर किसी को विशेष बनाकर नहीं भेजता; हम अपने संघर्ष और परिश्रम से ही अपनी मंजिल पाते हैं।