रवि एक मंझे हुए चित्रकार थे, लेकिन पिछले कुछ महीनों से वे अपने काम में किसी प्रकार की नवीनता महसूस नहीं कर रहे थे। उनके बनाए चित्र सुंदर थे, परंतु उनमें वह सजीवता नहीं थी जो पहले उनके काम में हुआ करती थी। यह बात उन्हें भीतर ही भीतर परेशान कर रही थी।
एक दिन, रवि ने अपने गुरु से अपनी चिंता साझा की। गुरु ने मुस्कुराते हुए कहा, रवि, तुमने कभी ध्यान दिया है कि जब तुम चित्र बनाते हो, तो तुम्हारा मन कहां होता है? रवि ने आश्चर्य से जवाब दिया, मन? वह तो चित्र में ही होता है, गुरुजी।
गुरुजी ने समझाया, जब मन भटकता है, तो सृजनात्मकता स्वत: ही कम हो जाती है। तुम्हारे विचार इधर-उधर बिखर जाते हैं और तुम अपनी पूरी क्षमता का उपयोग नहीं कर पाते।
रवि को यह बात समझ में आ गई, लेकिन उन्होंने पूछा, तो मैं कैसे करूं? गुरुजी ने उत्तर दिया, प्रत्येक दिन कुछ समय ध्यान में बिताओ। अपने विचारों को शांत करो और अपने भीतर की आवाज सुनो। तभी वह एकाग्र होगा और तुम्हारी सृजनात्मकता पुन: जागृत होगी।
रवि ने गुरुजी की बातों पर अमल करना शुरू किया। उन्होंने हर दिन सुबह ध्यान करना शुरू किया और धीरे-धीरे उन्होंने महसूस किया कि उनका मन पहले से अधिक शांत और एकाग्र हो गया है। अब जब वे चित्र बनाते थे, तो उनका मन पूरी तरह से चित्र में समर्पित रहता था।
उनकी रचनाओं में एक नई ऊर्जा और सजीवता आ गई थी। रवि ने सीखा कि सृजनात्मकता केवल तकनीक या कौशल का परिणाम नहीं है, बल्कि यह उस मन की स्थिरता और एकाग्रता का फल है जो पूरी तरह से कार्य में लीन हो जाता है। तभी कोई कार्य एक साधारण प्रयास से एक उत्कृष्ट कृति में बदलता है।