धर्माचार्य ओम प्रकाश पांडे अनिरुद्ध रामानुज दास ने बताया होली की परंपरा का इतिहास

06-March-2023

प्रतापगढ़, 6 मार्च 2023। History of Holi tradition : धर्माचार्य ओम प्रकाश पांडे अनिरुद्ध रामानुज दास ने होली की परंपरा का इतिहास लोगों से साझा किया है। उन्होंने बताया कि भारत देश के अंदर होली के उत्सव की परंपरा काफी प्राचीन है। इससे अनेक  कथानक जुड़े हुए हैं। इसका वर्णन वेद में, पुराणों और प्राचीन ग्रंथों में मिलता है।

वैदिक काल से नई फसल पकने के उल्लास में समरसता, समृद्धि, आरोग्य और बुराइयों के उन्मूलन के पर्व के रूप में होलिकोत्सव मनाया जाता है। जौ, चना, गेहूं आदि की नई फसल की बालियों को अग्नि में होम करने व भूनने से इस पर्व को नवशस्येष्ठी यज्ञ के रूप में मनाया जाता रहा है।

नए अनाज की भूंनी हुई वालियों वा दानों को संस्कृत में होलाका कहा जाने से इस नवान्न यज्ञ का नाम होलिका प्रचलित हो गया।

नवान्न यज्ञ की इस वैदिक परंपरा के साथ भक्त प्रहलाद होलिका का प्रसंग, राजा रघु का प्रसंग, पूतना वध व राजा हर्षवर्धन आदि के प्रसंग जुड़ते चले गए। इसका वर्णन अथर्ववेद परिशिष्ट जैमिनी के पूर्व मीमांसा सूत्र (1,3(15,16 ), काठात गृह्य सूत्र, नारद पुराण और भविष्य पुराण जैसे प्राचीन ग्रंथों में मिलता है। यही नहीं विंध्य क्षेत्र के रामगढ़ में ईसा से 300 वर्ष पुराने अभिलेख में भी इसका उल्लेख है। 

अलबरूनी आदि मुस्लिम इतिहासकारों ने भी अपने ऐतिहासिक यात्रा संस्मरण में होलिकोत्सव का वर्णन किया है । होली का उत्सव हिंदू ही नहीं कई मुसलमान भी मनाते थे। मुगल काल की अकबर आदि के दरबार की कई प्रामाणिक तस्वीरें आज भी शाहजहां के दरबार में होली को ईद-ए-गुलाबी या आब-ए-पाशी रंगों की बौछार के रूप में मनाया जाता था।

मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर भी होली पर उनके सभी मंत्री रंग लगाते थे। कुछ प्रदेशों में अबीर गुलाल के पारस्परिक आदान-प्रदान एवं बसंत के गीतों को गाकर रंगीन जल एक दूसरे के ऊपर डालते हैं। 

दक्षिण में होलिका के पांचवें दिन रंग पंचमी मनाई जाती है। हिरण्याक्ष का भाई हिरण्याकश्यपु अपने पुत्र पहलाद को जो नारायण का भक्त था उसे अनेक कठोर दंड प्रदान किए। किंतु वह अपने भक्ति मार्ग से हटा नहीं ।

अंत में उसकी बहन जिसे यह वरदान प्राप्त था कि वह अग्नि में एक वस्त्र लेकर बैठती थी और वह जल नहीं सकती थी। एक दिन उसी वस्त्र को सिर पर रखकर प्रहलाद को गोद में लेकर आग में बैठ गई। पवन का वेग आया और उस वस्त्र को उड़ा ले गया जिससे वह जल गई और प्रहलाद जी बच गए। 

प्रह्लाद का अर्थ होता है आनंद। बैर और उत्पीड़न की प्रतीक होलिका अर्थात लकड़ी या उप्पल जलाने से प्रेम और उल्लास की प्राप्त होती है। राजा रघु के काल में जिसका वर्णन भविष्योत्तर पुराण में आया है। राजा रघु के राज्य में ढूढींका नाम की एक राक्षसी थी जो अदृश्य रहकर बच्चों को रात दिन डराया करती थी।

राजा के पूछने पर वशिष्ठ जी ने कहा कि फाल्गुन मास की पूर्णिमा को जाड़े की समाप्त होने पर लोग हंसे, आनंद मनाएं, बच्चे लकड़ियों के टुकड़े लेकर प्रसन्नता पूर्वक निकले, अट्टहास करें, लकड़ी घास उप्पल इकट्ठा करके आग लगाए, तालियां बजाए और अग्नि की तीन बार परिक्रमा करें ।

इससे उस राक्षसी का अंत होगा। लोगों ने उपचार किया और दूसरे दिन चैत्र प्रतिपदा पर लोगों ने उस होलिका को मातृभूमि की मिट्टी मान करके अपने मस्तक पर लगाने का कार्य किया। 

बंगाल में यह उत्सव 3 से 5 दिन चलता है । पूर्णिमा की पूर्व चतुर्दशी को संध्या के समय मंडप के पूर्व में अग्नि के सम्मान में एक उत्सव होता है। गोविंद की पूजा की जाती है। भगवान को सात बार झूले में झुलाया जाता है।

राजा इंद्रद्युम्न जो भगवान श्री जगन्नाथ जी के श्री विग्रह को स्थापित किए थे । यह उत्सव उन्होंने प्रारंभ किया था। ऐसा करने से वह व्यक्ति पाप से मुक्त हो जाता है। 

एक कथानक कामदेव के द्वारा शिवजी के ध्यान को भंग करने व उसके पुनर्जन्म से भी जुड़ा हुआ है। भगवान श्री कृष्ण ने इसी दिन पूतना नामक राक्षसी का वध किया था। इसी खुशी में गोकुल वासियों ने रंग खेला था ।

पूर्णिमा के दिन चंद्रमा की पूजा करने की भी परंपरा थी। होलिका दहन भद्रा रहित प्रदोष काल व्यापनी पूर्णिमा में मनाया जाता है। प्रसन्नता पूर्वक अग्नि को जल से तर्पण करके विधिवत चंदन पुष्प अक्षत एवं दीपक तथा मिष्ठान भोग प्रदान कर पूजन करना चाहिए। 

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